
Katha Samay
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
119
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
238 mins
Book Description
समय अगर किसी रचना की कसौटी है, तो आलोचना की कसौटी भी वही है। कालबद्ध होकर ही ये दोनों कालजयी हो पाती हैं। लेकिन आलोचना-कर्म की एक कसौटी यह भी है कि अपने समय के रचना-कर्म को वह खुली आँखों से देखे और पूर्वग्रहमुक्त होकर उसकी पड़ताल करे। इस सन्दर्भ में डॉ. विजयमोहन सिंह का आलोचना-कर्म शुरू से ही पाठकों का ध्यान आकर्षित करता रहा है।</p> <p>‘आज की कहानी’ के बाद यह उनकी दूसरी ऐसी कृति है, जिसमें उन्होंने सिर्फ़ कथा साहित्य को केन्द्र में रखा है, और कहानी एवं कहानीकारों के साथ-साथ उपन्यास और उपन्यासकारों पर भी विचार किया है। इसके लिए उन्होंने ‘कथा-परिदृश्य : एक’ और ‘कथा-परिदृश्य : दो’ के अन्तर्गत चौदह रचनाकारों को लिया है; और आकस्मिक नहीं कि एक समर्थ कथाकार के रूप में रघुवीर सहाय भी इनमें शामिल हैं।</p> <p>यह सही है कि आलोचना की सम्पन्नता रचना की सम्पन्नता पर निर्भर है, लेकिन आलोचक की अपनी दृष्टि-सम्पन्नता के बिना इस बात का कोई महत्त्व नहीं है। सन्दर्भतः लेखक के ही शब्दों को उद्धृत करें तो “जिस तरह हम रचना या रचनाकारों का मूल्यांकन करते हैं, उसी तरह अपने विचारों को भी एकत्र रूप में प्रस्तुत करते हुए यह परखना ज़रूरी है कि वे केवल संगृहीत पृथक्-पृथक् निबन्ध न लगें, बल्कि जिनमें हमारी अपनी निजी जीवन-दृष्टि भी झलके।” दूसरे शब्दों में, एक सजग समालोचक आलोचना ही नहीं, आत्मालोचना भी करता है और इसी अर्थ में उसके इस काम को रचनात्मक कहा जाता है। कहना न होगा कि डॉ. विजयमोहन सिंह की इस कृति में यह गुण इसलिए और अधिक है, क्योंकि वे स्वयं एक समर्थ कथाकार हैं और एक बोलती हुई आलोचना-भाषा के सहारे रचना की मूल्यवत्ता और उसे उजागर करनेवाली सच्चाई तक जाने का साहस रखते हैं।