
Jahan Sab Shahar Nahi Hota
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
176
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
352 mins
Book Description
<strong>‘</strong>जहाँ सब शहर नहीं होता<strong>’ </strong>संकलन में श्रीप्रकाश शुक्ल अपनी प्रौढ़ रचनाओं के साथ उपस्थित हैं जिसमें सन्दर्भ<strong>, </strong>संवाद और सवाल एक साथ मिलते हैं। यहाँ परिवर्तन के तर्क व स्थितियों की मार्मिकता दोनों मौजूद हैं जिसमें वे एक स्थिति (सिचुएशन) में होकर दूसरे को रच रहे होते हैं। इसका परिणाम ही है कि उनमें संवेदनात्मक स्थितियों व मिथकीय सन्दर्भों के साथ व्यक्तिगत स्पेस<strong>, </strong>इतिहासबोध<strong>, </strong>समयगत व सामयिक बोध तथा मनोवैज्ञानिक व दार्शनिक सन्दर्भ एक साथ मिलते हैं। यहाँ शहर महज़ एक शहर नहीं है। यह इतिहास भी है और भूगोल भी। यह स्मृति भी और यथार्थ भी। यह स्थिति भी है और परिवर्तन भी। यहाँ एक शहर भीतर है तो एक बाहर। कहीं-कहीं एक शहर के भीतर कई-कई शहर<strong>!</strong> कहीं यह अपने वजूद का पैमाना भी है तो कहीं धारा के बीच भी अपनी धार को बनाए रखने की बेचैनी (फ़र्क़)। कहीं शहर के बरअक्स<strong>, </strong>अवशिष्ट जगहों की तलाश है तो कहीं गहरा क्षयबोध।</p> <p>इस रूप में श्रीप्रकाश की कविताओं में चीज़ों को देखने का एक नया अन्दाज़ है। कहीं यह <strong>‘</strong>समयबोध<strong>’ </strong>कविता में <strong>‘</strong>अपनी दुनिया की जितनी भी चीज़ें देखी गई हैं/सामने से नहीं/पीछे से देखी हुई हैं<strong>’ </strong>जैसी पंक्तियों के रूप में मिलता है<strong>, </strong>तो कहीं पत्नी के प्रेम जैसे नितान्त नाजुक प्रसंगों के बीच भी अपने वजूद को अनदेखा नहीं किए जाने की बेचैनी से भी जुड़ता है (<strong>‘</strong>फ़र्क़<strong>’</strong>)। कहीं <strong>‘</strong>पानी व जल<strong>’</strong> के फ़र्क़ को पकड़ा गया है (<strong>‘</strong>मकर संक्रान्ति<strong>’</strong>)<strong>, </strong>तो कहीं एक बूढ़े की उदासी को जीवन्त सन्दर्भों में उतारा गया है (<strong>‘</strong>भाग्य विधाता<strong>’</strong>)। कहीं रूढ़ियों पर प्रहार है (<strong>‘</strong>राजयोग<strong>’</strong>) तो कहीं पारम्परिक रूप से गंगाजल चढ़ाने के दृश्य को श्रमजल से जोड़कर देखा गया है (<strong>‘</strong>काँवरिए<strong>’</strong>)। कहीं स्त्री-सन्दर्भ से <strong>‘</strong>पत्नी के मोद के बीच जैसे/ठेहुँन का दर्द<strong>’ </strong>जैसी पंक्तियाँ हैं (<strong>‘</strong>पूजा<strong>’</strong>) तो कहीं पिता के आर्थिक अभाव के कारण बेटियों के लगातार झंखार होते जाने की करुण कथा भी है (<strong>‘</strong>तीन बहनें<strong>’</strong>)।</p> <p>कुल मिलाकर श्रीप्रकाश की कविताएँ मनुष्य की छीजती मनुष्यता की बेचैनी से रची गईं समग्रताबोध की कविताएँ हैं। यहाँ आत्मीय संस्पर्श की गूँज के साथ हर वस्तु का एक तटस्थ</p> <p>चित्रण मिलता है। यह कवि को न केवल अर्थवान बनाता है<strong>,</strong> बल्कि प्रासंगिक भी।