
Aranya
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
96
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
192 mins
Book Description
काव्य का स्थान समस्त वैचारिक सत्ता में न केवल सर्वोपरि है, बल्कि अपनी भाववाची सृजनात्मक प्रकृति के कारण परमपद भी कहा जा सकता है। अन्य वैचारिक सत्ताएँ, भले ही वे धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान या अध्यात्म की ही क्यों न हों, भाववाची सृजनात्मक न होने के कारण किसी-न-किसी कारण से सीमाएँ हैं। इस अर्थ में काव्य ही एकमात्र निर्दोष सत्ता है। वैचारिक विराटता जब सृजनात्मक और संकल्पात्मक होती है, तब उस ऋतम्भरा मधुमती-भूमिका की प्रतीति सम्भव है जिसके लिए धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान या अध्यात्म विभिन्न माध्यम और मार्ग सुझाते हैं। सामान्यत: तो प्रयोजन एक ही है, अत: काव्य का भी प्रयोजन है कि मनुष्य मात्र को उसके भीतर जो अनभिव्यक्त ‘पुरुष’ है (जिसे दर्शन ‘योगमाया-सुप्त’ की संज्ञा देता है) उसको रूपायित तथा संचरित किया जाए, साथ ही जितनी भी पदार्थिक सत्ताएँ हैं, उनको उनके महत् रूप ‘प्रकृति’ के साथ तदाकृत किया <br>जाए।</p> <p>राम और सूर्य के बीच यह गायत्री-छन्द ही अनाहूत भाव से शब्द-यज्ञ कर रहा है। जब तक यह काव्य का शब्द-यज्ञ सम्पन्न होता रहेगा तब तक यह सृष्टि पुरुष और प्रकृति की मिथुन मूर्ति बनकर लीला करती रहेगी। अत: हम चाहें तो कह सकते हैं कि समस्त जैविकता के लिए किए गए शब्द-यज्ञ का नाम ही काव्य है।</p> <p>वैसे ‘यज्ञ’ शब्द से चौंकने की कोई आवश्यकता नहीं है। शब्द का उच्चरित होना ही यज्ञ है। किसी भी काल, किसी भी देश और किसी भी भाषा की कविता हमारे न जानने और न चाहने पर भी शब्द-यज्ञ ही कर रही है।</p> <p>सृष्टि में जो कुछ भी तथा जैसा कुछ भी अथवा जिस किसी रूप में है, वह काव्य है। विराट् में जिस प्रकार पंक्ति-पावनता नहीं है क्योंकि वह अपांक्तेय है, इसलिए काव्य भी अपांक्तेय है और, इसलिए कवि को भी अपांक्तेय होना होगा।</p> <p>— भूमिका से